pratnakirti, vol.-1, issue-1, 2013 · अश्चया- जनक ूप में आस...

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Pratnakirti, vol.-1, Issue-1, 2013 http://www.pratnakirti.com/ 37 ऄैतयके अयदाता ताप शाहऔर राघवोलासमहाकाम् का रचना-काल ताप कु मार तम [email protected] सार-संेप ऄैतयारा ‘राघवोलासमहाकाम्’ का णयन १७ व शती के ारतभभक दशक म कया गया। दुभााय से अज तक आसका काशन नह हो सका था लेककन तवगवषा आसका काशन सभपूणा अ। कातशसंकरण आस महाका और ईसके रचनाकार के काल-तनधाारण को लेकर ऄयप चचाकी गइ थी जो तवतवध ऐततहातसक सदभ को तनमतिकरते थे। ऄैतयके अयदाता ताप शाह की पहचान होने के कारण -रचना-काल तो वतथहो पाया था और ही वतथहोने की कदशा की ओर के तिही। ऄैतयके आह अयदाता तापशाह पर ईपलध ऐततहातसक सदभ को पृथक् कर, आह हम तुत अलेख के ऱप शोतधय, ऄनुसधान-ेतमय के सम आस अशय से रख रहे ऄैतयऔर राघवोलास-महाका के काल-तनधाारण पर वे ऄपना यान अकृ करगे। कीवसा : मुरा, ऄैतय, ऄैताम, राघवोलास, ताप-शाह, बागुलान, मुगल-साट् ऄकबर, जहागीर, रामकथा, फादर कातमल बुके , काशी, तुलसीदास, मानसरोवर-घाट, ऄसी-घाट, काशी-तवनाथ-मतदर। संकृ त-सातहय के मयकालीन आततहास ऄैतयका नाम सवाथतवरल तो नह लेककन आस सातहय के ऄयेता और शोतधय के तलए यह नाम बधा ऄपुत और ऄात ऄवय है। हततलतख-के सूचीपि और ईन आततहास-को छोड़ , जो मूलतः ऄपने लेखन हेतु आन सूचीपि का ही तवशेष ईपयोग करते तो यह भी सभभव है तपछली सदी तलखे गए ऄधुनातन संकृ त-सातहय के आततहास- ऄैतयका नाम ही हो। संेप कह तो संकृ त-सातहय के आततहास ऄैतयऔर ईनकी रचनाएं दोन ही ऄात ह। दुभााय से ऄात एवं दुलाभ के काशन संकृ त-समाज और आसके काशक दोन ही ईदासीन रहे ह। यह ईदासीनता 1960 के दशक तक नह थी और हम देखते संकृ त-सातहय या संकृ त-वाय का जो ापक कलेवर वतामान तव को अया -चककत कए है , ऄपने ईस पूणा ापक कलेवर यह सातहय 1789 से लेकर 1960 0 के बीच कातशहो चुका था। छठे दशक के बाद भी आस कार के तुय लेककन जैसी आसकी तवशालता थी और तजतना आसका ऄात, दुलाभ तथा ऄकातशसातहय ईपलध था ईसकी तुलना ये सवाथनगय तस ए। संकृ त-सातहय के ऄसंय का-महाका अकद ऄभी भी देश-तवदेश के पुतकालय, हततलतखसंहालय, मठ-मतदर और तनजी संह ऄपने काशन की तचर-तीा कर ही रहे ह। सौभाय से ऄतखल भारतीय मुतलम-संकृत संरण एवं ाय शोध संथान, वाराणसी.

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  • Pratnakirti, vol.-1, Issue-1, 2013

    http://www.pratnakirti.com/ 37

    ऄद्वतैयतत के अश्रयदाता ‘प्रताप शाह’ और ‘राघवोल्लासमहाकाव्यम’् का रचना-काल

    प्रताप कुमार तमश्र

    [email protected]

    सार-संक्षेप

    ‘ऄद्वतैयतत’ द्वारा ‘राघवोल्लासमहाकाव्यम्’ का प्रणयन १७ वीं शती के प्रारतभभक दशकों में ककया

    गया। दभुााग्य से अज तक आसका प्रकाशन नहीं हो सका था लेककन तवगत वषा आसका प्रकाशन सभपूणा हुअ।

    प्रकातशत संस्करण में आस महाकाव्य और ईसके रचनाकार के काल-तनधाारण को लेकर ऄत्यल्प चचाा की गइ

    थी जो तवतवध ऐततहातसक सन्दभों को तनमतन्ित करत ेथे। ऄद्वतैयतत के अश्रयदाता प्रताप शाह की पहचान

    न होन ेके कारण ग्रन्थ-रचना-काल न तो व्यवतस्थत हो पाया था और न ही व्यवतस्थत होन ेकी कदशा की ओर

    केतन्ित ही। ऄद्वतैयतत के आन्हीं अश्रयदाता प्रतापशाह पर ईपलब्ध ऐततहातसक सन्दभों को पृथक् कर, आन्हें

    हम प्रस्तुत अलेख के रूप में शोतधयों, ऄनुसन्धान-पे्रतमयों के समक्ष आस अशय से रख रह ेहैं कक ऄद्वतैयतत

    और राघवोल्लास-महाकाव्य के काल-तनधाारण पर वे ऄपना ध्यान अकृष्ट करेंगे।

    कीवर्डसा : मुरारर, ऄद्वतैयतत, ऄद्वतैाश्रम, राघवोल्लास, प्रताप-शाह, बागुलान, मुगल-सम्राट् ऄकबर,

    जहााँगीर, रामकथा, फादर कातमल बुल्के, काशी, तुलसीदास, मानसरोवर-घाट, ऄस्सी-घाट,

    काशी-तवश्वनाथ-मतन्दर।

    संस्कृत-सातहत्य के मध्यकालीन आततहास में ऄद्वतैयतत का नाम सवाथा तवरल तो नहीं लेककन आस

    सातहत्य के ऄध्येता और शोतधयों के तलए यह नाम बहुधा ऄल्पशु्रत और ऄज्ञात ऄवश्य ह।ै हस्ततलतखत-ग्रन्थों

    के सूचीपि और ईन आततहास-ग्रन्थों को छोड़ दें, जो मूलतः ऄपने लेखन हतेु आन सूचीपिों का ही तवशेष

    ईपयोग करत ेहैं तो यह भी सभभव ह ैकक तपछली सदी में तलखे गए ऄधुनातन संस्कृत-सातहत्य के आततहास-

    ग्रन्थों में ऄद्वतैयतत का नाम ही न हो। संक्षेप में कहें तो संस्कृत-सातहत्य के आततहास में ऄद्वतैयतत और ईनकी

    रचनाए ं दोनों ही ऄज्ञात हैं। दभुााग्य स े ऄज्ञात एवं दलुाभ ग्रन्थों के प्रकाशन में संस्कृत-समाज और आसके

    प्रकाशक दोनों ही ईदासीन रह े हैं। यह ईदासीनता 1960 के दशक तक नहीं थी और हम दखेते हैं कक

    संस्कृत-सातहत्य या संस्कृत-वाङ्मय का जो व्यापक कलेवर वतामान तवश्व को अश्चया-चककत ककए हुए ह,ै

    ऄपने ईस पूणा व्यापक कलेवर में यह सातहत्य 1789 स ेलेकर 1960 इ0 के बीच प्रकातशत हो चुका था। छठे

    दशक के बाद भी आस प्रकार के स्तुत्य प्रयत्न हुए लेककन जैसी आसकी तवशालता थी और तजतना आसका

    ऄज्ञात, दलुाभ तथा ऄप्रकातशत सातहत्य ईपलब्ध था ईसकी तुलना में ये प्रयत्न सवाथा नगण्य तसद्ध हुए।

    संस्कृत-सातहत्य के ऄसंख्य काव्य-महाकाव्य अकद ऄभी भी दशे-तवदशे के पुस्तकालयों, हस्ततलतखत

    ग्रन्थ संग्रहालयों, मठ-मतन्दर और तनजी संग्रहों में ऄपने प्रकाशन की तचर-प्रतीक्षा कर ही रह ेहैं। सौभाग्य से

    ऄतखल भारतीय मुतस्लम-संस्कृत संरक्षण एवं प्राच्य शोध संस्थान, वाराणसी.

    mailto:[email protected]

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    ऄभी भी कुछ प्राच्य-तवद्या पे्रमी, ऄनुसन्धाता, ऄध्येता तथा स्वतंि व्यति एवं संस्थाए ंआन ऄज्ञात ग्रन्थों के

    प्रतत ऄपना मोह रखत ेहैं, बस हमारे तलए अश्वस्त रहन ेका एक तृण-प्राय अधार ऄभी भी वतामान ह।ै

    संस्कृत के ऄज्ञात-सातहत्य के ईद्धार हते ुप्रततबद्ध ईपयुाि आन्हीं प्राच्य-तवद्या पे्रतमयों में एक तवशु्रत संस्कृत-

    ऄध्येता डॉ0 रामककशोर झा ने तपछले वषों ऄद्वतैयतत द्वारा तवरतचत ‘राघवोल्लासमहाकाव्यम्’ का तवतधवत्

    सभपादन एवं प्रकाशन कर संस्कृत-सातहत्य के आततहास में सवाथा तवस्मृत एक ईत्कृष्ट महाकाव्य की प्राति को

    सुगम बना, समग्र भारतीय सातहत्य का तवशेष ईपकार ककया ह।ै

    प्रकातशत संस्करण की भूतमका में तवद्वान ्सभपादक ने आस महाकाव्य और महाकतव से सभबतन्धत

    बतहःसाक्ष्यों के सावातिक ऄभाव को बड़ी तवनम्रता से स्वीकार कर, प्रायः ईन सभी तथ्यों को प्रस्तुत कर

    कदया ह ैजो आस महाकाव्य के ऄन्तःसाक्ष्यों से ईन्हें ईपलब्ध हो सका। लेककन यहााँ ध्यान दनेे की बात ह ैकक

    प्रथम तो आस महाकाव्य के ऄन्तःसाक्ष्यों में आसके रचतयता के सन्दभा में ही साक्ष्य ऄत्यल्प मािा में ईपलब्ध हैं

    और और जो ईपलब्ध हुए भी तो सभपादक ने ईनका तवशे्लषण या तो नहीं ककया ह ैऔर यकद दो-चार पंतियों

    में ककया भी तो यह तवशे्लषण तबलकुल सहती ह,ै तजसके कारण राघवोल्लासमहाकाव्य के प्रणेता ऄद्वतैयतत स े

    सभबतन्धत प्रामातणक तववरण, ईनके तस्थतत एवं रचना-काल सभबन्धी जानकारी प्रकातशत संस्करण से नहीं

    हो सकती। ध्यान दनेे की बात यह ह ैकक आस महाकाव्य के ऄन्तःसाक्ष्यों से ईपलब्ध सूचनाओं का पररशीलन

    मध्यकालीन भारतीय आततहास के सन्दभों में ककए जान ेकी अवश्यकता थी, जो ककसी कारण से प्रकातशत

    संस्करण की भूतमका में नहीं की जा सकी। आस महाकाव्य को पढ़ते हुए मुझ ेकुछ ऐसे स्थल और तवन्द ुप्राि

    हुए जो मध्यकालीन भारतीय आततहास के तवतवध प्रसंगों तथा मध्यकालीन भारत के प्रान्तीय आततहास से

    ऄपना सभबन्ध तथा तादात्भय रखत ेथे। आन तवन्दओुं को तसलतसलेवार आततहास के आन पक्षों के समानान्तर

    रख, ऄद्वतैयतत और ईनके रचनाकाल को समझने की अवश्यकता प्रतीत हुइ सो जब मैंने तमलान ककया तो

    अश्चया- जनक रूप में आस सन्दभा के कुछ ऄनसुलझ ेरहस्य प्रकट होत ेस ेलगे। यहााँ मैं आन्हें तवन्दवुार प्रस्तुत

    करंूगा –

    1

    ककसी हस्ततलतखत ग्रन्थ के सभपादन व प्रकाशन के समय ग्रन्थ या ग्रन्थकार के काल-तववेचन में स्वयं

    सभपाद्य पाण्डुतलतपयााँ बहुत सहायक होती हैं। संयोग से ‘राघवोल्लास’ के प्रकातशत संस्करण में ग्रन्थ के

    रचना-काल तनधाारण-क्रम में आस महाकाव्य की हस्ततलतखत प्रततयों का तवशे्लषण नहीं ककया जा सका।

    ‘राघवोल्लास’ के सभपादन में कुल पााँच हस्ततलतखत प्रततयों की सहायता ली गइ ह ैतजनकी तवशद ्सूचना

    यथास्थान प्रस्तुत ह।ै लेककन ग्रन्थ के रचना-काल तनधाारण हतेु आन पााँच में केवल दो प्रततयााँ ही ईपयोगी हो

    सकती हैं, क्योंकक सभपादन में प्रयुि ऄन्य तीन 1. भारत-कला-भवन, काशी, 2. गंगानाथ झा ररसचा

    आंस्यूट-आलाहाबाद तथा 3. भंडारकर ओररयण्टल ररसचा आंस्यूट-पूना, की प्रततयों में समय का ईल्लेख ही

    नहीं ह ैऄतः आनकी चचाा यहााँ व्यथा ह।ै

    प्रकातशत संस्करण की भूतमका के ऄनुसार - तजन दो प्रततयों में समय का ईल्लेख ह ैईनमें ‘आतण्डया

    ऑकफस लायब्रेरी’ में संरतक्षत राघवोल्लास’ की हस्ततलतखत प्रतत का समय 1625 तिस्ताब्द बताया गया ह ै

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    और लगभग यही समय ‘तसतन्धया ओररयन्ट आंस्यूट, ईज्जैन’ में संरतक्षत प्रतत का भी ठहरता ह,ै यहााँ संरतक्षत

    प्रतत का समय 1683 तवक्रमी संवत ् ह,ै ऄथाात् 1626 इ0। आस प्रकार दखेें तो सभपादन हते ु प्रयुि

    राघवोल्लास की हस्ततलतखत प्रततयों में सबस ेप्राचीन प्रतत लंदन की और सबस ेऄवााचीन ईज्जैन वाली प्रतत

    ठहरती ह ैऔर दोनों के समय में अश्चयाजनक रूप से महज एक वषा का ऄन्तर ह।ै

    यहााँ ध्यान दनेे की बात यह ह ै कक लंदन एवं ईज्जैन, दोनों ही प्रततयों के हस्तलेख का जो समय

    ईद्धृत ह,ै वह सपष्ट रूप से यह नहीं बताता कक 1625 तिस्ताब्द या 1683 तवक्रमी संवत ्हस्ततलतखत प्रतत

    का तलतपकाल ह ैया ग्रन्थ-रचनाकाल। ऄथाात ्दोनों ही प्रततयों के समय को दखेने से संपाकदत प्रतत का पाठक

    यह नहीं जान सकता कक ये काल तलतपकाल ह ैया ग्रन्थ-रचनाकाल। लंदन वाली प्रतत में ‘1625 तिस्ताब्द’ में

    प्रयुि ‘तिस्ताब्द’ स ेयह तो स्पष्ट ह ै कक यह काल तलतपकार द्वारा प्रस्तुत नहीं ह ैक्योंकक ग्रन्थ-पुतपपका में

    तिस्ताब्द के रूप में संवत् का ईपयोग हमारे तलतपकार नहीं करत,े तो तनतश्चत ही यह काल ‘आतण्डया ऑकफस

    लायब्रेरी-लंदन के हस्ततलतखत-ग्रन्थ-सूचीपि-सभपादकों द्वारा प्रस्तुत काल ह ैऔर सभपादकों ने वहााँ ईपलब्ध

    प्रतत में ईतल्लतखत संवत ्स ेतिस्ताब्द का तनधाारण कर तलया होगा। लन्दन वाली प्रतत की पुतपपका में कौन

    सा संवत् ऄंककत ह ैयह डॉ0 रामककशोर जी न ेनहीं बताया ह,ै ना ही पुतपपका ही प्रस्तुत की ह,ै लेककन आस

    महाकाव्य के सन्दभा में पहली बार कोइ महत्त्वपूणा शोध तथा समीक्षा-सामग्री प्रस्तुत करन े वाल े तवद्वान्

    श्रीराघवप्रसाद पाण्डये जी ने फादर कातमल बुल्के से स्वयं के तलए तैयार की गइ प्रतत से आसकी पुतपपका

    प्रस्तुत की ह ै-

    ‘संवत ्1682 समय ेफाल्गुन वदी ऄष्टमी वार सूभ दीन े(श्लोक, तशपय) संख्या 2275 तलषीत ंमानसातह

    काएस्थः’

    ग्रन्थान्त की आस पुतपपका1 से केवल आसके तलतपकाल का ही ज्ञान नहीं होता ऄगत्या तलतपकार का नाम भी

    प्रकट हो जाता ह ैऔर तलतपकार की जानकारी हो जान ेसे जो सबस ेमहत्त्वपूणा तथ्य तसद्ध होता ह,ै वह ये कक

    लन्दन वाली प्रतत ‘राघवोल्लास’ की मूल (आसके रचतयता ऄद्वतैयतत द्वारा स्वयं तलतखत) प्रतत नहीं ह ैतथा

    आस महाकाव्य की रचना फाल्गुन, संवत् 1682 या इस्वी सन ्1625 के फरवरी-माचा महीन ेस ेपूवा तक हो

    चुकी थी। आस रूप में लन्दन वाली हस्ततलतखत प्रतत राघवोल्लास के रचना-काल का ऄतन्तम सीमा-काल

    1. पुतपपका में - ‘(श्लोक, तशपय) संख्या 2275’ ऄस्पष्ट तथ्य ह।ै यकद आसका अशय तलतपकार द्वारा आस प्रतत में

    तलतपकृत श्लोक या पद्यों की कुल संख्या ह ैतो आस पुतपपका के ऄनुसार ‘राघवोल्लासमहाकाव्य’ में कुल 2275 पद्य

    होने चातहए। जबकक डॉ0 रामककशोर झा द्वारा सभपाकदत एवं प्रकातशत प्रतत में पद्यों की कुल संख्या जहााँ 1622

    ह,ै वहीं लन्दन से फादर कातमल बुल्के व ईनस ेराघवप्रसाद जी को ईपलब्ध प्रतत में (चतुथा से द्वादश सगा तक)

    कुल 976 पद्य हैं यकद आसमें प्रकातशत प्रतत के प्रारतभभक तीन सगों के पद्यों, जो कक 549 हैं, - को जोड़ कदया जाए

    तो यह संख्या 1525 होती ह ैऄथाात ्प्रकातशत प्रतत से 97 पद्य कम (1622-1525 = 97)। और यहााँ तलतपकार

    की ऄस्पष्ट भाषा कह रही कक आसमें 2275 पद्य या तशपय हैं। पद्यों की यह ऄसमानता ऄवश्य-ऄनुसन्धेय ह।ै पता

    नहीं डॉ0 रामककशोर जी का ध्यान लन्दन वाली प्रतत की आस पुतपपका और पद्यों की आस ऄसमानता की ओर क्यों

    नहीं गया ? लेककन पुतपपका की आस ऄस्पष्ट भाषा का अशय यकद राघवोल्लास के पद्यों की कुल संख्या बताने से

    न हो तो आस प्रकार की कोइ करठनाइ नहीं।

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    तनधााररत कर दतेी ह।ै ऄब तवचारणीय तवन्द ुबच जाता ह,ै आसके रचना-काल की पूवा-सीमा का तनधाारण तो

    आसके तलए हमें आस ग्रन्थ के ऄन्तःसाक्ष्य की बहुत ही गभभीरता और सूक्ष्मता के साथ पड़ताल करनी पड़गेी।

    यह ऄन्तःसाक्ष्य ह ैप्रतापशाह के रूप में ग्रन्थकार द्वारा ऄपने अश्रयदाता का ईल्लेख।

    2

    प्रकातशत संस्करण के सभपादक ने प्रस्तुत ग्रन्थ के रचना-काल के सन्दभा में कोइ तवशेष चचाा नहीं की

    ह ैऔर आस प्रकार की कोइ चचाा न ककए जान ेके पीछे ईन्होंने जो कारण कदया ह,ै वह ह ैआस महाकाव्य के

    रचतयता के सन्दभा में ककसी भी प्रकार के ऐततहातसक या सातहतत्यक तववरणों की कमी। हााँ स्वय ंऄद्वतैयतत

    द्वारा ऄपने अश्रयदाता प्रताप शाह की प्रशंसा में तलतखत दो पद्यों के अधार पर संपादक ने प्रताप शाह का

    काल तनधााररत कर आस ग्रन्थ के सभभातवत तथा ऄनुमातनत रचनाकाल को तचतननत करन ेका प्रयत्न ऄवश्य

    ककया ह।ै लेककन काल-तनधाारण हते ुप्रयुि ईनकी प्रस्थापना ऐततहातसक दतृष्ट से ऄसंगत होन ेके कारण प्रकृत

    ग्रन्थ के काल-तनधाारण सभबन्धी लक्ष्य से भटक गइ ह।ै सभपादक के ऄनुसार - ‘मुगल शासक ऄकबर के

    शासन-काल 1556-1627 इ0 में स्वयं ऄकबर का ही ऄधीनस्थ प्रताप शाह नामका कोइ लघु-सामन्त काशी

    का शासक तनयुि ककया गया था। ईसी समय मुरारर नामा कोइ काव्य-प्रततभा-सभपन्न कतव काशी अकर

    ऄपनी काव्य-प्रततभा से प्रताप शाह के सभपका में अया।’2

    यहााँ ऐततहातसक महत्त्व के दो तवन्दओुं पर ध्यान दनेा अवश्यक ह,ै पहला कक ऄकबर का शासन-

    काल 1556-1605 इ0 ह ैन कक 1556 स े1627 तक और दसूरा कक ऄकबर न ेकाशी में प्रताप शाह नामक

    ककसी व्यति को ऄपना ऄधीनस्थ सामन्त तनयुि नहीं ककया था। ईपलब्ध ऐततहातसक साक्ष्यों के ऄनुसार

    ऄकबर के शासन-काल में काशी ऄवध की जागीरदारी में अता था तजसमें सुल्तानपुर, जौनपुर, वाराणसी,

    चुनार, गाजीपुर सतभमतलत थे और हमारी ऄब तक की खोजबीन में एक भी ऐसा सूि नहीं प्राि हो सका

    तजसमें आस तथ्य का संकेत तक हो कक ऄकबर ने तववेच्य काल-क्रम में ककसी प्रताप शाह नामा व्यति को

    काशी का शासक या सामन्त या ऄपना ऄधीनस्थ कोइ सामानय कमाचारी तक तनयुि ककया हो। यहााँ हम

    आस तवषय को थोड़ा तवस्तार देंगे ऄथाात् 1560 से लेकर 1620 इ0 तक मुगल-साम्राज्य द्वारा वाराणसी में

    तनयुि सामन्तों, शासकों तथा ऄतधकाररयों की बाबत ऐततहातसक सन्दभों को तवशे्लतषत करेंगे। यद्यतप कक

    हमारा यह प्रयत्न कुछ ऄनावश्यक प्रतीत होगा ककन्त ु संस्कृत-सातहत्य के आततहास में स्वयं आसके एक

    महाकतव के तस्थततकाल को व्यवतस्थत रूप स ेप्रस्थातपत ककए जान ेके मूल्य पर यह यह आततहास-तववेचन

    ऄत्यन्त अवश्यक ह।ै दसूरा तथ्य कक, चूाँकक राघवोल्लास के रचना-काल का व्यवतस्थत सूि तनतश्चत रूप स े

    प्रताप शाह की पहचान और ईनके तस्थतत-काल में कहीं खोया पड़ा ह ैतजसका ऄन्वेषण ककए बगैर हम आस

    काल को नहीं जान सकत े ऄतः हमें प्रताप शाह की पहचान और ईनके तस्थतत-काल स े सभबतन्धत हर

    सभभावनाओं और पक्षों पर गभभीरता स ेतवचार कर लेना चातहए।

    ऄकबर द्वारा काशी में प्रताप शाह नामा व्यति को मुगल-साम्राज्य का ऄतधकारी या सामन्त या

    शासक तनयुि ककये जान ेकी सूचना का यथाथा जानन ेहतेु प्रस्तुत पंतियों के लेखक ने सभबतन्धत तवषय के

    2. राघवोल्लासमहाकाव्यम्, अत्मतनवेदन, पृष्ठ-21

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    ऄनेक ऐततहातसक सन्दभा ग्रन्थ दखेे ककन्त ुसवाि ईसे तनराशा ही हाथ लगी। समकालीन आततहास-ग्रन्थों, यथा

    - ‘ऄकबरनामः’, ‘मुन्तखाबुत्तवारीख’, ‘अआन-ए-ऄकबरी’ तथा ‘जहााँगीरनामः’ में तछटपुट रूप स ेवाराणसी

    के सभबन्ध में तववरण कदए गए हैं ककन्तु आन तववरणों को एकतित तथा कालक्रम के ऄनुसार व्यतस्थत कर

    तववेच्य कालावतध में मुगल-साम्राज्य की ओर स ेवाराणसी में तनयुि शासकों की पहचान की जा सकती ह।ै

    नीच ेहम ईपयुाि ग्रन्थों और तवशेषकर काशी के आततहास के तवशु्रत ऄध्येता एवं ग्रन्थकताा डॉ0 मोतीचन्ि के

    ‘काशी का आततहास’ से सभबतन्धत तथ्यों को प्रस्तुत कर रह ेहैं -

    १. 1554 स े 1556 के बीच अकदल शाह, जो कक ऄकबर का तवरोधी था, - और ईसके बाद 1556 स े

    1564 इ0 तक चुनार अकदल शाह के ऄनुयायी सामन्तों के ऄतधकार में था। काशी पर आन सामन्तों का

    अंतशक अतधपत्य रहा।

    २. ऄकबरनामः के साक्ष्यों के ऄनुसार खानजमााँ न ेजब मुगल-साम्राज्य से 1559 इ0 में बगावत की, ईसके

    साथ प्रथम युद्ध के पूवा तक काशी मुगल-साम्राज्य का ऄंग नहीं था, ऄतपतु खानजमााँ के ऄतधकार में था।

    ३. 1565 इ0 में खानजमााँ के तविोहों से अतजज ऄकबर न ेईसे दतण्डत करन ेहते ुस्वयं प्रयाण ककया और

    जौनपुर होत ेहुए वह वाराणसी अया। यद्यतप कक सम्राट् के अन ेस ेकाशी की राजनैततक तस्थतत में कुछ

    सुधार अया लेककन जौनपुर तथा वाराणसी में खानजमााँ के सेवकों के ईत्पात जारी रह।े

    ४. 1567 इ0 में खानजमााँ की मृत्यु हो जान ेपर ऄकबर एक बार पुनः काशी अता ह ैऔर खानजमााँ के

    सहयोतगयों के ईत्पात तथा जनता के तविोह को कुचलन ेहते ुकुछ कठोर ईपाय करता ह।ै ऄकबरी-युग के

    सबस े तवश्वसनीय आततहासकार बदायूाँनी के ऄनुसार खानजमााँ की मृत्यु के कारण राजनैततक रूप से

    शान्त सूबः-ए-ऄवध या जौनपुर सतहत खानजमााँ एवं बहादरु शाह की पूरी जागीरें मुनइम खााँ

    खानखाना को द े दीं और ईसे वहााँ का सूबःदार घोतषत कर कदया।3 आस सूबः की जागीर जौनपुर-

    बनारस-गाजीपुर-जमातनयााँ तथा चुनार के ककले तक फैली थी।

    ५. 1574 इ0 में ऄकबर ऄफगान-वचास्व को समाि करन ेहते ुबंगाल-ऄतभयान पर था। रबीईल्-ऄव्वल की

    25 तारीख को वह जलमागा से काशी पहुचंा और तीन कदनों तक यहीं ठहरा। बदायूाँनी के ऄनुसार काशी

    ऄभी भी मुनइम खााँ खानखाना की सूबःदारी में ही थी।

    ६. बदायूाँनी के ऄनुसार बंगाल पर तवजय प्राि हो जान ेके बाद ऄकबर न ेमुनइम खां खानखाना को ऄवध

    (जौनपुर) के स्थान पर बंगाल की सूबःदारी प्रदान कर दी और जौनपुर-काशी अकद की सूबःदारी स्वयं

    सम्राट् के ऄध्यधीन तमजाा मीरक रजबी तथा शेर आब्राहीम सीकरीवाल को प्राि हुइ।4

    ७. बदायूाँनी के साक्ष्यों के ऄनुसार 1576 इ0 में मुहभमद मा’सूम खााँ फरनखुद्दी को बनारस का नया

    सूबःदार बनाया गया।

    3. Muntkhab’-uttawarikh, vol.-2, page-104.

    4. Muntkhab’-uttawarikh, vol.-2, page-185.

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    ८. मुहभमद मा’सूम खााँ फरनखुद्दी के बाद तरसुम मुहभमद खााँ बनारस के सूबःदार घोतषत हुए जो सभभवतः

    1588 इ0 तक रह।े5

    ९. बदायूाँनी के ऄनुसार 1589 इ0 में ईपयुाि सूबों की सूबःदारी कुछ कदनों के तलए ऄब्दरुाहीम खााँ ‘रहीम’

    खानखाना को प्राि हुइ और काशी आनके ऄधीन रही।6

    १०. 1584 इ0 में आलाहाबाद का ककला बनकर तैयार हुअ तो सूब े की राजधानी जौनपुर स े ईठकर

    आलाहाबाद चली गइ और बनारस, आलाहाबाद सूबे का एक सरकार या तजला बन गया। बनारस का

    पहला फौजदार तमजाा चीन ककलीच खााँ था जो कक 1599 इ0 तक फौजदार रहा।

    ११. 1599 के बाद तमजाा चीन ककलीच खााँ का पुि चीन ककलीच जौनपुर का सूबःदार तनयुि हुअ और

    बनारस आसके ऄधीन हो गया। 1616 इ0 में आसका तनधन जौनपुर में ही हुअ।

    १२. 1615 इ0 में जहााँगीर न ेअगा नूर नामा ऄपने एक प्रतततष्ठत ऄमीर-ईमरा को ‘तसरपाव’ (तखलऄत)

    दकेर जौनपुर का ऄतधकारी तनयुि ककया जो कक बहुत स्वल्प काल तक यहााँ रहा।7

    मुगल-साम्राज्य की ओर से तनयुि आतन ेही ऄतधकाररयों के नाम हमें ऐततहातसक सन्दभों में प्राि

    होत ेहैं। ये ऄतधकारी सूबः-ए-ऄवध या जौनपुर या आलाहाबाद के सूबःदार तनयुि होत ेऔर समूचा सूबा

    आनके ऄतधकार में हुअ करता था। लेककन आनमें कहीं भी हमें प्रताप शाह नामा ककसी व्यति की चचाा तक

    ईपलब्ध नहीं होती। यहााँ यह भी स्मरण में रखने योग्य ह ैकक प्रताप शाह ही नहीं मुगलों की ओर स ेककसी

    तहन्द ूसूबःदार या सामन्त को तनयुि करन ेसभबन्धी कोइ सूचना आन सन्दभा-ग्रन्थों में ईपलब्ध नहीं। हााँ आस

    प्रसंग में ऄकबर के तवशु्रत अमात्य, तवत्तमन्िी तथा साम्राज्य के ऄत्यन्त प्रभावी ऄमीर राजा टोडरमल के

    पुि गोवधान या गोबरधनदास या धरु की चचाा ऄवश्य की जानी चातहए। धरु मुगल-साम्राज्य का एक प्रमुख

    राजनैततक व्यति था और समय-समय पर आसन ेकइ प्रतसद्ध सैन्य-सेवाए ंप्रदान की थीं। समकालीन सन्दभों

    के ऄनुसार जौनपुर तथा वाराणसी से आसका घतनष्ठ सभबन्ध रहा और दशकों तक आन क्षेिों में आसकी

    ईपतस्थतत दजा की जाती रही। यहााँ यह सूतचत कर दनेा भी ईतचत होगा कक काशी में टोडरमल द्वारा जो

    धार्ममक स्थलों के पुनरुद्धार तथा तनमााण की तवशेष चचाा आततहास में की जाती ह ै ईन सभी में धरु की

    भूतमका ही प्रधान हुअ करती थी। काशी के सुप्रतसद्ध आततहासकार डॉ0 मोतीचन्ि स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार

    करत ेहैं कक स्वयं काशी के तवश्वनाथ मतन्दर का जो पुनरुद्धार टोडरमल द्वारा ककया गया ईसमें भी टोडरमल

    के पुि धरु या गोवरधन की ही भूतमका ऄतधक थी।

    आस प्रकार दखेें तो तववेच्य कालावतध में मुगल-साम्राज्य के एकमाि तहन्द ू ऄमीर की ईपतस्थतत

    जौनपुर तथा काशी में सूतचत होती ह ैऔर वह भी वहााँ के सामन्त या शासक के रूप में नहीं। यह तहन्द ू

    ऄमीर ह ैराजा टोडरमल का पुि धरु। ऄस्तु, ईपयुाि ऐततहातसक तववेचन स ेप्राि तनपकषों के अधार पर हम

    कह सकत ेहैं कक आस युग में प्रताप शाह नामा ककसी सामन्त की ईपतस्थतत कम स ेकम वाराणसी में तो नहीं

    5. Muntkhab’-uttawarikh, vol.-2, pp. 290-291

    6. Muntkhab’-uttawarikh, vol.-2, page-384.

    7. तववेच्य कालावतध में मुगलों की ओर से तनयुि काशी के ईपयुाि शासकों/सामन्तों पर तवस्तार से जानने हतेु

    देतखय े‘काशी का आततहास, डॉ0 मोतीचन्ि, पृष्ठ : 160-164.

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    ही थी।8 तब प्रश्न यह ह ैकक राघवोल्लास के रचतयता ने ऄपने तजस अश्रयदाता प्रताप शाह की चचाा की ह ै

    वह प्रताप शाह अतखरकार ह ैकौन?

    समकालीन तथा परवती ऐततहातसक संदभों और कोश-ग्रन्थों का ऄवलोकन करें तो ऄकबर के

    शासन-काल में प्रताप शाह नाम के दो ही महत्त्वपूणा शासक हमारे तलए तववेचनीय रह जाते हैं। आनमें प्रथम

    हैं प्रख्यात क्षतियवीर, तससौकदया-वंशीय और राणा सांगा के वंशज तथा महाराणा ईदय ससह के अत्मज

    महाराणा प्रताप ससह, लेककन नाम-साभय के ऄलावा ऐसा कोइ भी दसूरा कारण नहीं तजसस ेहम ऄद्वतैयतत

    का सभबन्ध महाराणा प्रताप से स्थातपत कर सकें ।

    दसूरे प्रताप शाह हैं, राठौर-वंशीय बागुलान नातसक के तहन्द ूसम्राट्, नारायण शाह के पुि प्रताप

    शाह और यह प्रताप शाह हमारे तववेच्य महाकाव्य के रचतयता मुरारर या ऄद्वतैयतत के अश्रयदाता होन ेके

    प्रायः समीप हैं और हो सकत ेहैं, तजनके ऄपने व्यवतस्थत कारण हैं और आनका तवस्तृत तववरण हम तनम्नवत्

    प्रस्तुत कर रह ेहैं –

    १. राघवोल्लास-महाकाव्य के रचतयता न ेआस महाकाव्य में दो स्थान पर ककसी प्रताप शाह की चचाा की ह।ै

    ईनके द्वारा प्रताप शाह का ईल्लेख ककये जान ेकी शैली से यह सुतरा ंप्रकट ह ैकक प्रताप शाह कहीं के

    सम्राट् थे और ईनकी तवशेष कृपादतृष्ट ऄद्वतैयतत पर थी।

    २. आस युग 1625-1626 में महाराणा प्रताप को छोड़ ककसी ऄन्य प्रताप शाह नामा ककसी ऐसे शासक का

    कोइ तवतशष्ट ईल्लेख नहीं तमलता जो कतवयों, रचनाधर्ममयों का ईदार अश्रयदाता हो। यकद

    राघवोल्लास की लन्दन वाली प्रतत में ईतल्लतखत 1625 इ0 आस ग्रन्थ का रचनाकाल न भी हो और

    तलतपकाल ही हो तो भी यह स्पष्ट ह ैकक 1625 इ0 स ेपूवा आसकी रचना हो चुकी थी, कम से 10 वषा

    और ऄतधकतम 20 वषा पूवा तक ऄथाात ्1615 से 1605 इ0 तक तो ऄवश्य हो चुकी थी। ऐततहातसक

    साक्ष्यों के ऄनुसार महाराणा प्रताप का तनधन 1582 इ0 में हो चुका था ऄतः महाराणा प्रताप को

    ऄद्वतैयतत या मुरारर का अश्रय-दाता प्रताप शाह कथमतप स्वीकार नहीं ककया जा सकता।

    ३. मुरारर के अश्रयदाता होन ेसे महाराणा प्रताप के तवरत हो जान ेपर हमारे पास केवल एक ही ऄन्य

    प्रताप शाह रह जात ेहैं तजनकी ऄद्वतैयतत के अश्रयदाता होन ेकी प्रबल सभभावना बनती ह,ै और वह हैं

    बागुलान-नरेश प्रतापशाह।

    ४. बागुलान या मुल्हरे दतक्षण भारत के नातसक तजले में तस्थत एक ऄत्यन्त प्राचीन राज्य था जो गुजरात,

    खानदशे तथा दतक्षण के मध्य में तस्थत था। ऐततहातसक साक्ष्यों व स्रोतों के ऄनुसार बागुलान के बागुला

    राठौर ईत्तर भारतीय कन्नौतजया राठौरों की ही एक शाखा के सदस्य थे।9 मुग़लकालीन भारतीय

    आततहास में मुल्हरे या बागुलान पर ऄकबर और जहााँगीर के शासन-काल में नारायण शाह और ईनके

    बाद प्रताप शाह का राज्य था। 1573 इ0 में गुजरात-अक्रमण के समय ऄकबर जब सुरत में था

    नारायण शाह न ेऄपने 3000 सशस्त्र सैतनकों सतहत गुजरात-तवजय में मुग़ल-सेना को ऄपनी सेवा दी

    8. ऄपन ेलेख के ऄन्त में श्रीराघवप्रसाद पाण्डेय जी ने प्रताप शाह की ऐततहातसक पुतष्ट से तवरत रहत ेहुए ऄद्वतैयतत

    के ऄध्ययन हतेु प्रतापशाह की पहचान को ऄत्यावश्यक बता; आस ओर ऄनुसन्धान-प्रेतमयों को तनमतन्ित ककया ह।ै

    9. History of Aurangjeb, pp. 23-25.

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    थी। नारायण शाह और ऄकबर के मध्य सभबन्ध ऄच्छे रह ेऔर मुग़ल-साम्राज्य के ऄध्यधीन बागुलान

    पर नारायण शाह का राज्य कम स ेकम 1585-1590 इ0 तक ऄक्षुण्ण रूप स ेस्थातपत रहा।10

    ५. ककन्तु नारायण शाह के ज्येष्ठ पुि प्रताप शाह के ससहासन पर अरूढ होन ेके बाद लगभग 1590-1595

    इ0 के बाद मुग़ल-साम्राज्य और बागुलान के बीच मैिीपूणा सभबन्ध नहीं रह गए और सभभवतः ऄकबर

    ने ‘सभपूणा दतक्षण-तवजय’ सभबन्धी ऄपने ऄतभयान के क्रम में 1599 इ0 में बागुलान पर अक्रमण कर

    कदया। सात वषों की घेरेबन्दी के बाद भी जब बागुलान का ककला ऄकबर के हाथों न अ सका तो ईसन े

    प्रतापशाह स े सतन्ध कर ली11 और आसके बाद पुनः ऄकबर के जीवनकाल तक मुगल-साम्राज्य और

    बागुलान के सभबन्ध सुदढृ रह।े

    ६. आस प्रकार दखेें तो नारायण शाह के बाद 1590-1595 इ0 के लगभग प्रताप शाह बागुलान के ससहासन

    पर अरूढ हुए। ऐततहातसक साक्ष्यों के ऄनुसार प्रताप एवं जहााँगीर का सतभमलन 12 रबीईल ्ऄव्वल,

    सन ् 1026 तहजरी, तदनुसार माचा 1617 को हुअ12 था तजसस े 1617 इ0 तक प्रताप शाह का

    बागुलान-नरेश होना तसद्ध होता ह।ै प्रताप शाह बागुलान के ससहासन पर कब तक तवराजमान रह े

    आसकी प्रामातणक सूचना हमारे पास नहीं ह ैलेककन 1637 इ0 में औरंगजेब ‘जहााँगीर के पौि’ द्वारा

    बागुलान पर अक्रमण के समय तजस बागुलान-नरेश ने मुल्हरे-ककल े को औरंगजेब के हाथों सौंप

    बागुलान को मुगल-साम्राज्य के ऄधीन कर कदया13 वह प्रताप शाह नहीं थे ‘तनतश्चत ही आसे भी प्रताप

    शाह का पुि या पौि होना चातहए, समय की अपेतक्षकता आसी ओर संकेत करता ह ै। संक्षेप में कहें तो

    प्रताप शाह का राजत्व-काल 1595 से 1620 इ0 ऄवश्य रहा ह।ै

    ७. प्रताप शाह कतवयों एवं रचना-धर्ममयों के ईदार अश्रयदाता थे और ईपलब्ध साक्ष्यों के ऄनुसार संस्कृत

    के कइ रसतसद्ध-कतव ईनके संरक्षण में सारस्वत साधना में लीन रहा करत ेथे। ऐसे रचना-धर्ममयों में

    महाकतव श्रीरुि का नाम संस्कृत-सातहत्य के आततहास में तवख्यात ह।ै संयोग स ेरुिकतव को नारायण

    शाह एवं प्रताप शाह, दोनों ही शासकों का अश्रय प्राि हुअ और ऄपने अश्रयदाताओं के अदशे तथा

    ईनकी रुतच का सभमान करत े हुए रुिकतव ने ऄनेकानेक ग्रन्थों का तनमााण ककया। आन ग्रन्थों में

    ‘राष्टौढवंश-महाकाव्यम्’ ऄत्यन्त प्रतसद्ध ह ैजो कक राठौरों के आततहास तथा प्रताप शाह के वंशजों के

    आततवृत्त सतहत बागुलान के राठौर-नरेशों की ईपलतब्धयों का ऐततहातसक दस्तावेज प्रस्तुत करता ह।ै

    रुिकतव की ऄन्य रचनाओं में ‘नवाबखानखानाचररतम्’ नामा एक लघु चभपूःकाव्य का भी ईल्लेख होना

    चातहए जो कक मध्यकालीन भारत की महान् तवभूतत, तहन्दी-संस्कृत-ऄरबी-फारसी-तुकी अकद भाषाओं

    के लोकोत्तर रचनाकार एवं ददुाान्त वीर-योद्धा, खानखाना बैरम खााँ के पुि खानखाना ऄब्दरुाहीम खााँ

    10. Rastraudha Vamsha Mahakavyam, introduction, pp. 13-14 and 18.

    11. History of Aurangjeb, pp. 27-29.

    12. जहााँगीरनामा, 12 वां जलूसी वषा, पृष्ठ 374-375.

    13. तहन्दी तवश्वकोश, भाग-15, पृष्ठ-289.

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    ‘रहीम’ के जीवन स ेसभबतन्धत ह ैऔर ऐततहातसक दतृष्ट से बहुत ही महत्त्वपूणा कृतत ह।ै आस चभपू की

    रचना रुिकतव न ेप्रताप शाह की अज्ञा से 1606 स े1609 इ0 के मध्य कभी की थी।14

    ८. रुिकतव ने प्रायः ऄपनी सभी रचनाओं में ऄपने अश्रय-दाता प्रताप शाह की, तवशेषकर ईसके द्वारा

    कतवयों तथा रचनाधर्ममयों को कदए ईदार अश्रय, मान-सभमान की जी-भर प्रशंसा की ह।ै सभभव ह ैस्वयं

    मुरारर या ऄद्वतैयतत भी आन्हीं प्रताप शाह के संरक्षण में रह ेहों।

    ९. ऄद्वतैयतत या मुरारर के बागुलान-नरेश प्रताप शाह के संरक्षण में ही होन ेसभबन्धी हमारी सभभावना का

    एक प्रमुख कारण स्वयं ईनके दीक्षा-गुरु रामकृपणाश्रम भी हैं। दभुााग्य से रामकृपणाश्रम पर भी तववरणों

    का ऄभाव ह ै और हमारे पास आनके भी व्यतित्व तथा कृततत्व का कोइ प्रामातणक साक्ष्य ईपलब्ध

    नहीं।15

    १०. ‘अश्रम’ पद अकदशंकाराचाया द्वारा स्थातपत श्रीद्वारका-शारदापीठ की शंकराचाया-परभपरा में

    शंकराचायों द्वारा ऄपने नाम के साथ लगाया जान ेवाला परभपरायात्त पद ह।ै श्रीद्वारका-शारदापीठ की

    परभपरा के शंकराचायों में सवाप्रथम ‘अश्रम’ पद का प्रयोग हम नारायणाश्रम के रूप में हुए शंकराचाया

    के नाम में प्राि करत ेहैं जो कक चैि-शुक्ल-चतुदाशी, तवक्रम-संवत् 836 पयान्त आस पीठ के शंकराचाया

    रह।े आस पीठ में आनके ईत्तरवती सभी शंकराचायों के नाम में ‘अश्रम’ पद जुड़ा हुअ ह ैऔर यह परभपरा

    तवगत सदी के शंकराचायों के नाम तक ऄक्षुण्ण रूप स ेप्रवर्मतत रही ह।ै आस पीठ के वतामान शंकराचाया

    श्री स्वरूपानन्द सरस्वती के पूवावती दसूरे शंकराचाया का पुण्य-ऄतभधान श्रीमच्चन्िशेखराश्रम (1982

    तवक्रमी-संवत्) था।16

    ११. ऄद्वतैाश्रम के दीक्षा-गुरु श्रीरामकृपणाश्रम तनतश्चत रूप से आसी ईपयुाि परभपरा में ककसी पुण्यश्लोक

    शंकराचाया के तशपय-प्रतशपय रह ेहोंग ेऔर मुरारर को भी दीतक्षत कर आस परभपरा में सतभमतलत ककया

    होगा। ककन्त ुदभुााग्य स ेईन पर प्रामातणक तववरणों का ऄभाव ह।ै

    १२. 16 वीं तथा 17 वीं सदी में काशी की अचाया-परभपरा को ध्यान से तवशे्लतषत ककया जाए तो हम दखेते हैं

    कक आस युग में ‘अश्रम’ ईपातध-धारक संन्यातसयों, जो कक दशान-शास्त्रों के तनपणात अचाया हो अए हैं

    और ऄपनी ग्रन्थ एवं टीका-सभपतत्त स ेदशान-शास्त्र की प्रत्येक शाखा को समृद्ध ककया ह,ै -की एक तवशाल

    परभपरा रही थी।17 आन संन्यातसयों व दशान-अचायों में ऄतधकांश दतक्षण-भारत से ही सभबतन्धत थ ेऔर

    ईनकी परभपरा के ऄतग्रम अचाया भी प्रायः दतक्षण-तनवासी ही रह ेहैं। यद्यतप कक आस समय हमारे पास

    14. नवाबखानखानाचररतम्, भूतमका.

    15. यह अश्चयाजनक ह ै कक ऄद्वतैयतत ने ऄपन े तजस दीक्षा-गुरु रामकृपणाश्रम की चचाा की ह ैईन पर समकालीन

    आततहास-ग्रन्थ तो मौन हैं ही, स्वय ं 17 वीं शताब्दी की काशी-तवद्वत्परभपरा तथा तवतवध दशान-शातस्त्रयों की

    अचाया-परभपरा से सभबतन्धत सन्दभा-ग्रन्थों में भी अपका नाम तक ऄनुपलब्ध ह।ै लेककन संस्कृत-शोध की

    वतामान पीढी को रामकृपणाश्रम से सभबतन्धत तववरण ढंूढने ही पड़ेंग ेऄन्यथा ऄद्वतैयतत पर ककया गया ऄध्ययन

    ऄधूरा ही रहगेा ऄतः शोतधयों से तनवेदन ह ै कक रामकृपणाश्रम से सभबतन्धत जानकारी एकतित करें और ईसे

    प्रकाश में लाएं।

    16. The age of Sankara, pp. 15-155.

    17. आस युग में नृससहाश्रम युगस्मरणीय अचाया हो अए हैं, आसी प्रकार रामभिाश्रम अकद कुछ अचाया भी काशी-

    तवद्वत्परभपरा के ऄग्रणी अचाया थे। तवशेष तववरण हते ुदेखें - ‘काशी की पातण्डत्य-परभपरा, बलदेव ईपाध्याय.

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    साक्ष्यों का ऄभाव ह ैलेककन यकद हमारा ऄनुमान पूणातः ऄसभबद्ध न हो तो स्वयं मुरारर या ऄद्वतैयतत

    या ऄद्वतैाश्रम भी दतक्षण के ही तनवासी रह ेहोंग ेऔर प्रताप शाह के संरक्षण में अए होंगे। प्रताप शाह के

    संरक्षण में होन ेस ेयह भी ऄनुमान ककया जा सकता ह ैकक ऄद्वतैयतत बागुलान, वतामान नातसक के अस-

    पास के ककसी क्षेि के तनवासी रह ेहोंगे।

    १३. ऄस्तु, ऄब हम ऄपने तवचार के केन्िीय तवषय की ओर लौटते हैं, और वह ह ैऄद्वतैयतत द्वारा रतचत

    ‘राघवोल्लास’ का काल-तनणाय। चूाँकक प्रताप शाह का ऄनुमातनत ककन्तु ऐततहातसक राजत्व-काल 1590

    से 1620 इ0 ह,ै तजसकी चचाा हम ईपर कर अए हैं, तो यकद मुरारर या ऄद्वतैाश्रम या ऄद्वतैयतत आन्हीं

    प्रताप शाह के संरक्षण में रहें हों तो ऄद्वतैयतत के रचना-काल का समय भी आसी के अस-पास रहा होगा।

    यहााँ यह भी ध्यान रखना होगा कक ऄद्वतैयतत आस काल के ही मध्य कभी काशी चले गए और संन्यास

    ग्रहण कर तलया। ‘राघवोल्लास’ के ऄतन्तम सगा में ईन्होंन ेकाशी में ऄपनी कदनचयाा पर कुछ तवस्तार से

    तलखा ह।ै18 काशी के प्रतत ईनकी श्रद्धा, गंगा-स्नान, तवश्वेश्वर-पूजन, रामकथा-प्रवचन अकद के सन्दभा में

    ईनकी तनष्ठा का पररशीलन ककया जाए तो प्रतीत होता ह ै‘राघवोल्लासमहाकाव्यम्’ की रचना से कम स े

    कम 5-7 वषा पूवा तक तो वह काशी अ ही चुके थे। आस प्रकार दखेा जाए तो प्रताप शाह के संरक्षण में

    ऄद्वतैयतत द्वारा व्यतीत की गइ कालावतध 1595 स े1610 इ0 के अस-पास होनी चातहए।

    १४. यहााँ बहुत ही सावधानी स ेऄद्वतैयतत द्वारा प्रताप शाह के ईल्लेख का तवशे्लषण ककया जाना चातहए -

    ‘प्रताप शाह द्वारा ऄर्मपत गौरव के कारण तजसन ेस्वगा को भी तृणवत् समझा वह ‘मुरारर’ अज सबकुछ

    छोड़-छाड़कर काशी में ऄपने वास्ततवक स्वरूप ‘संन्यास’ को प्राि हो रहा ह।ै’19

    १५. ध्यान दने ेकी बात ह ैयहााँ ऄद्वतैयतत ने ऄपना नाम मुरारर बताया ह ैजो कक संन्यास लेन ेस े पूवा तक

    प्रतसद्ध रहा। संन्यास ग्रहण करन ेके बाद ईनका नाम ऄद्वतैाश्रम, ऄद्वतैयतत तथा ऄद्वतैतभक्ष ुअकद के रूप

    में प्रचतलत हुअ। मुरारर न े ‘समस्तमेतत ् संन्यस्य’ ‘सबकुछ छोड़-छाड़कर’ संन्यास ग्रहण ककया तो

    तनतश्चत ही ईन्होंने ऄपने अश्रयदाता प्रताप शाह को भी छोड़ा। पद्य में ‘एतत्’ पद पूवा ‘तत’् का

    परामशाक ह,ै और यह ‘तत’् - मुरारर के ‘प्रतापशाहार्मपतगौरवत्व’ ‘तिकदवस्तृणाभ-मातनत्व’ अकद ह।ै

    ‘एतत ् समस्तं संन्यस्य’ अशय यह कक प्रताप शाह के अश्रय में ऄद्वतैयतत तभी तक थे जब तक वह

    ‘मुरारर’ थे, ऄद्वतैयतत बनन े के बाद ईनका साक्षात ् सभपका प्रताप शाह से तनतश्चत ही नहीं रह गया

    होगा। हमारे ईपयुाि ऄनुमान के तहसाब से 1610 इ0 के बाद से मुरारर का सभबन्ध प्रताप शाह के साथ

    नहीं रह गया होगा।

    १६. ‘काश्या ंसंन्यस्य’ जैस े तवतशष्ट-स्थान-तनदशेात्मक वाक्य-प्रयोग से एकबारगी यह भी प्रकट होता ह ैकक

    मुरारर या ऄद्वतैयतत काशी के नहीं थ ेऄगत्या बाहर कहीं स ेकाशी अए और यहााँ संन्यास ग्रहण ककया।

    आस रूप में में भी हमारी ईपयुाि सभभावना को बल तमलता ह ैतजसमें हमन ेमुरारर के दतक्षण, तवशेषकर

    नातसक के अस-पास के ककसी क्षेि के वासी होने की चचाा की ह।ै

    18. राघवोल्लासमहाकाव्यम्, सगा-12, ऄतन्तम के 50 पद्य तवशेष िष्टव्य.

    19. प्रतापशाहार्मपतगौरवेण येनाप्यमातन तिकदवस्तृणाभः।

    मुराररणानेन समस्तमेतत ्संन्यस्य काश्यातमतमात्मरूपम्।। - 12/108

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    १७. मुरारर न ेऄपने अश्रयदाता के अदशे से काशी में अन ेऔर संन्यास लेन ेस े पूवा तक माि ‘कथासागर’

    नामा ग्रन्थ की रचना की थी। तनतश्चत रूप स ेआस ग्रन्थ की रचना 1590 से 1610 इ0 के मध्य हो चुकी

    होगी। लेककन काशी में संन्यास लेन ेके बाद (1610 इ0 के बाद) वही मुरारर, ऄद्वतैयतत के रूप में प्रस्तुत

    महाकाव्य ‘राघवोल्लास’ की रचना करन ेजा रह ेहैं। स्वयं ऄद्वतैयतत द्वारा आस प्रकार की ईति से प्रकट है

    कक ‘राघवोल्लास-महाकाव्य’ की रचना ईन्होंने ऄपने पूवा अश्रयदाता प्रताप शाह या ककसी ऄन्य शासक

    के अदशे पर नहीं20 ऄतपतु संन्यास से ईपजी ऄपनी अस्था और ऄपने अराध्य के प्रतत ईत्कट पे्रम के

    कारण की।21 हमारा यह ऄनुमान आस महाकाव्य के सातहत्यशास्त्रीय मूल्यांकन तथा संस्कृत-महाकाव्य

    परभपरा में आसके ऄवदान के संभातवत मूल्यांकन पर ऄवतस्थत ह।ै आसी प्रकार ईन्होंने ‘भतिचतन्िका’ का

    तनमााण भी सभभवतः काशी में संन्यास लेन े के बाद ही और ऄपनी ईपयुाि धार्ममक तथा अध्यातत्मक

    मनोदशा में रहकर की होगी। आस रूप में दखेें तो ‘राघवोल्लास’ के तनमााण की पूवा सीमा-रेखा 1610

    इ0 से प्रारभभ होती ह ैऔर 1625 इ0 में आसकी प्रतततलतप प्राि होने के कारण आसकी ऄतन्तम सीमा-

    रेखा 1625 इ0 के रूप में स्वतः तसद्ध ह।ै

    ईपयुाि तववरणों स ेप्रकट ह ै कक ‘राघवोल्लास’ 1610 से लेकर 1624 इ0 के मध्यावतध में कभी

    प्रणीत हुअ। आसी प्रकार ईपयुाि तववरण के अधार पर हम ऄद्वतैयतत के समग्र रचना-काल को भी सूतचत

    कर सकत े हैं और वह ह ै 1690-95 स े 1610-15 इ0 तक ऄपने अश्रयदाता प्रतापशाह के ऄधीन और

    1610-15 स े1620-24 इ0 तक काशी में स्वतन्ि लेखन।

    3

    ऄद्वतैयतत के रचना-काल की चचाा कर लेने के बाद यहााँ हम ईनके काशी-प्रवास काल पर भी कुछ

    आततहास-सभबद्ध पररचचाा प्रस्तुत करेंगे, तजसका ईद्दशे्य ईपयुाि रूप में ईनके रचना-काल की ऐततहातसक

    पुतष्ट करना तथा ऄद्वतैयतत के पूणा जीवन-काल का ऄनुमातनत ककन्त ुव्यवतस्थत अकलन करन ेसे ह।ै यह

    पररचचाा तनम्नतलतखत तवन्दओुं के रूप में प्रस्तुत की जा सकती ह ै-

    १. 1590-95 स े1610-1615 इ0 के मध्य ऄद्वतैयतत प्रताप शाह के संरक्षण में थ,े यह हम ऐततहातसक

    सन्दभों के समानान्तर प्रस्तुत कर अए हैं।

    20. येनाकारर तवचारर मानसमनोहारी कथासागरो

    ग्रन्थोग्रतन्थ मतेः प्रतापनृपतेरादेशतः पूवातः।

    काव्यानमतप यत्िय ंगुणमय ंश्रीरामनामाश्रय ं

    काश्यामद्य जयत्ययस्यतनलयः सोद्वैतनामा यततः।। - 12/109

    21. ‘राघवोल्लास’ के सभपादक डॉ0 रामककशोर झा ने यह सभभावना व्यि की ह ैकक ऄद्वतैयतत न ेराघवोल्लास तथा

    भतिचतन्िका का तनमााण भी ऄपन ेअश्रयदाता प्रताप शाह के अदेश पर काशी में ककया, चूाँकी ईनकी प्रस्थापना

    ही प्रताप शाह के काशी के सामन्त होने से प्रारभभ हुइ ह ैऄतः ईन्हें यह ऄनुमान ठीक लगा होगा। लेककन चूाँकी

    प्रताप शाह काशी के सामन्त या शासक थ ेही नहीं ऄतपत ुबागुलान के शासक थ ेतो यह करठन-कल्पना न होगी

    कक ऄद्वतैयतत ने ऄपनी अध्यातत्मक अस्था के कारण राघवोल्लास तथा भतिचतन्िका का तनमााण ककया न कक

    ऄपन ेअश्रयदाता के प्रीत्यथा तथा ईनके अदेशानुसार।

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    २. 1610-15 स े1620 या 1624 इ0 तक ऄद्वतैयतत काशी में रह ेहोंग,े यह भी हम ईपर प्रस्तुत कर

    अए हैं। ककन्तु ऄद्वतैयतत काशी में तनतश्चत रूप से कब अए और कब तक रह ेयह ऄभी तक ज्ञात

    नहीं हो सका ह।ै

    ३. राघवोल्लास के 12 वें सगा में वे ऄपनी कदनचयाा बतात ेहुए कहत ेहैं –

    वाराणस्या ंतशवस्थान ेमानसाख्य ेसरोवरे। ऄद्वतैेन कृत ंकाव्य ंसीताकान्ततनयोगतः।।12/186

    आस पद्य में अया ‘मानसरोवर’ मानसरोवर-घाट ह ैजो कक मानमतन्दर-घाट के नाम से भी प्रतसद्ध ह।ै

    ४. काशी के सुप्रतसद्ध आततहासकार डॉ0 मोतीचन्ि तलखते हैं कक - ‘मानसरोवर-मुहल्ले को ऄंबर-नरेश

    मानससह ने बनवाया था। शेररग के समय तक मानससह के बनवाए हुए मतन्दर बनारस में तमलत ेथे।

    मानससह के बनवाए घाटों में सबसे प्रतसद्ध घाट मानमतन्दर-घाट ह,ै तजसमें बाद में जयससह ने

    वेधशाला बनवाइ।’22 ऄब प्रश्न ईठता ह ैकक यह मानससह कौन थ ेऔर मानमतन्दर या मानसरोवर-

    घाट को ईन्होंने कब बनवाया।

    ५. यद्यतप कक आस युग में ऄनेक मानससह नामा राजा और सामन्त हो अए हैं लेककन ऄंबर तजसे ‘अमेर’

    के रूप में जाना जाता ह,ै -के नरेश के रूप में जो मानससह प्रतसद्ध हैं वे एकमाि तबहारीमल के पौि,

    भगवानदास के पुि और ऄकबर के सुयोग्य सेनापतत मानससह ही हैं।

    ६. ऐततहातसक साक्ष्यों के ऄनुसार मानससह ऄकबर की सेवा में ऄपने तपतामह तबहारीमल तथा तपता

    भगवानदास के साथ ही अ गए थ ेलेककन साम्राज्य में ककसी तजभमेदार पद पर ईनकी तनयुति प्रथम

    बार 984 तहजरी, जो कक 31 माचा 1576 को प्रारभभ हुअ, -में हो सकी थी। यह तनयुति थी

    महाराणा प्रताप के तवरुद्ध गोगुण्डा ‘हल्दीघाटी’ के युद्ध में ईन्हें तनयुि ककया जाना। आसके बाद से

    मानससह की पद-प्रततष्ठा में जो वृतद्ध हुइ वह मुगलकालीन आततहास में तवतशष्ट चचाा का तवषय रहा।

    एक समय अया जब ऄकबर ने ईन्हें 7000 का मंसब प्रदान ककया जो पूरे साम्राज्य में दो-एक तुका

    ऄतधकाररयों को छोड़ ककसी को भी प्राि नहीं हो सका था। 997 से 1015 तहजरी (1588-1605

    इ0) के बीच का काल ईनके प्रशासतनक-काल का स्वणा-काल था और आसी कालावतध में ईन्होंन ेकइ

    वास्तुशास्त्रीय तनमााण-काया भी कराए तजनके तववरण आततहास-ग्रन्थों से प्राि ककए जा सकत ेहैं।

    यकद मानससह न ेही काशी में मानमतन्दर-मुहल्ल ेतथा मानसरोवर घाट का तनमााण कराया हो तो

    हमारा ऄनुमान ऄसंगत नहीं होगा कक यह घाट 1588 से 1600 इ0 के मध्य बनाया गया होगा और

    1620 इ0 तक आसकी आतनी प्रतसतद्ध तो हो ही गइ होगी कक कोइ कतव या रचनाकार ऄपने तनवास-

    स्थान के रूप में आसका ईल्लेख कर सके।

    ७. वरदराज, काशी में संस्कृत-व्याकरण के एक तवशु्रत अचाया हो अए हैं जो भट्टोतज दीतक्षत के तशपय

    थे। काशी में आनका तस्थतत-काल 1600 से 1660 इ0 के मध्य का ह।ै ईनके एक ग्रन्थ

    22. काशी का आततहास, पृष्ठ : 167-168.

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    ‘गीवााणपदमंजरी’23 में काशी के मुहल्लों तथा घाटों का तवस्तार से वणान प्राि होता ह।ै आन घाटों में

    मानसरोवर-घाट का भी वणान ह।ै आसस ेभी प्रमातणत होता ह ैकक ईपयुाि रूप में 1620 इ0 तक

    यह घाट काशी में प्रतसद्ध हो चुका था।

    ८. ऄद्वतैयतत के काल-तनधाारण में ‘राघवोल्लास’ का एक ऄन्य पद्य भी बहुत महत्त्व का ह ै तजसमें

    ईन्होंने तनयतमत रूप स े गंगा-स्नान के बाद काशी-तवश्वेश्वर का दशान ककये जाने की घटना का

    ईल्लेख ककया ह ै–

    जले गांग ेस्नान ंतदनु हरपूजातवरचन ं

    ततो दवेस्थाने क्षणमतप तदाख्यानकथनम्।

    पुनः साकं सतिर्मवकतसतमुखाब्जं च हसन ं

    यकद स्यान्मे तनत्य ंमधुमथन ! लोके ककमतधकम्।। - 12/141

    ९. काशी-तवश्वनाथ मतन्दर का आततहास जानन े वालों से बात छुपी नहीं ह ै कक 1193-94 इ0 में

    गहरवार-वंशीय प्रतसद्ध राजा जयचन्द को परास्त कर शहाबुद्दीन मुहभमद गोरी द्वारा काशी-

    तवश्वेश्वर का मतन्दर भग्न ककये जान े के बाद से 1585 इ0 तक काशी में तवश्वनाथ का कोइ

    ईल्लेखनीय मतन्दर नहीं था। यद्यतप 391 वषा की आस ररि कालावतध में तवश्वनाथ का पूजन-ऄचान

    बन्द नहीं हुअ और ईदार तहन्द ूराजाओं, सामन्तों तथा भिों के प्रयत्न से आन वषों में कइ छोट-मोटे

    मतन्दर स्थातपत होत ेरह ेऔर पुनः धमाान्ध मुतस्लम शासकों द्वारा भग्न होत ेरह ेतथातप ऐततहातसक

    रूप से यह प्रकट ह ैकक काल के आतन ेसुव्यतस्थत खण्ड में काशी में तवश्वनाथ का कोइ भव्य, तवशाल

    मतन्दर नहीं रहा।

    १०. 1194 इ0 के बाद 1585 इ0 में टोडरमल और ईनके पुि धरु की सहायता से काशी के ऄग्रगण्य

    अचाया और समस्त भारत की अचाया-परभपरा के संरक्षक, सभपोषक नारायण भट्ट के नेतृत्व और

    ईनके सत्प्रयत्नों से पुनः काशी में तवश्वनाथ मतन्दर की स्थापना हो सकी।

    ११. ऄद्वतैयतत तजस ईल्लासमय मनोदशा में स्वयं द्वारा गंगा-स्नान के बाद तवश्वनाथ-पूजा तवरचन का

    ईल्लेख करत ेहैं, ईसस ेप्रतीत होता ह ैकक ईनके समक्ष तवश्वनाथ का कोइ मतन्दर ऄवश्य तवद्यमान

    था। यह मतन्दर तनतश्चत रूप स ेनारायण भट्ट द्वारा 1585 इ0 में स्थातपत तवश्वनाथ मतन्दर होना

    चातहए।

    १२. ऄब यकद ईपलब्ध ईपयुाि घटनाओं का तवशे्लषण करें तो पता चलता ह ैकक - चूाँकक 1588 इ0 स ेपूवा

    काशी में मानसरोवर-घाट24 का ऄतस्तत्त्व ही नहीं था और 1585 इ0 से पूवा तवश्वनाथ-मतन्दर भी

    23. ‘गीवााणपदमंजरी’ ऄधुनापयान्त ऄप्रकातशत ग्रन्थ ह ैऔर आसकी हस्ततलतखत प्रततयााँ ईपलब्ध हैं। आस ग्रन्थ पर

    तवशेष तववरण हतेु देतखए - Varadraj: A pupl of Bhattoji, (A volume in studies in Indology:

    presented to Proff. P.V. Kane), page-188.

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    नहीं था तो ऄद्वतैयतत द्वारा मानसरोवर-�